वैश्विक सोच वैश्विक बोल | Think Global, Talk Global
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वैश्विककरण के युग में, भारतीय नेताओं को आजकल अंतर्राष्ट्रीय मंच पर बोलने के लिए काफी बुलाया जा रहा है। इससे हमारे राजनेताओं के लिए यह अनिवार्य हो जाता है कि वे विश्वव्यापी परिप्रेक्ष्य में खुद को उन्मुख करें और अपने विचारों को अभिव्यक्त करें।
अंतरराष्ट्रीय मंच को संबोधित करते समय, वैश्विक प्रासंगिकता से संबंधित विषयों पर बात करना अच्छा रहता है। राष्ट्रवाद का असामयिक प्रदर्शन श्रोताओं को न केवल हमसे दूर करता है बल्कि अन्य देश के नेताओं को अपने राष्ट्रवाद का प्रदर्शन करने के लिए प्रेरित कर सकता है। इस प्रकार एक-दूसरे की सराहना करने के बजाय हर कोई अपनी ढपली और अपना राग अलापेगा। उदाहरण के लिए, यदि कोई भारतीय नेता केवल भारतीय संस्कृति की महानता और समृद्धि की ही बात करता रहे, तो यह न केवल एक प्रतिस्पर्धी राष्ट्रवाद को उकसा सकता है बल्कि यह दूसरों को भारत के प्रशंसक बनाने की अपेक्षा हमसे दूर कर सकता है।
उदाहरण के लिए, यदि कोई जर्मन या ब्रिटिश नेता भारत आए और केवल अपने देश की महानता के बारे में बात करे तो भारतीय श्रोता कटा-कटा सा महसूस करेंगे और नेता के दृष्टिकोण की सराहना नहीं कर पाएंगे। ठीक इसी प्रकार यदि कोई भारतीय नेता विदेश जाए और केवल भारतीयता के बारे में बात करे, तो इससे वहां के श्रोता दूर हो जाएंगे। राष्ट्रवाद के इतने अधिक प्रदर्शन से उनमें भारत के प्रति प्रीतिभाव बढ़ने के बजाय उल्टा असर भी पड़ सकता है।
राष्ट्रीय स्तर पर प्रासंगिक होने के लिए किसी नेता को एक अखिल भारतीय कार्यविधि की जितनी आवश्यकता होती है, उतनी ही अंतरराष्ट्रीय दर्शकों को संबोधित करते समय वैश्विक परिप्रेक्ष्य का भी ध्यान रखने की जरूरत है। अन्य देशों के लोगों एवं संस्कृतियों से जुड़ाव की भावना की बेहद कमी खलती है और उसे विकसित करने की अत्यंत आवश्यकता है। हमने देखा है कि कैसे एक नेता जो केवल अपने राज्य के बारे में बात करता है, अक्सर राष्ट्रीय स्तर पर कोई प्रभाव डालने में असफल रहता है। यहां तक कि “भारत के विचारों” पर प्रकाश डालते समय भी इसे वैश्विक परिप्रेक्ष्य में रखा जाना चाहिए। इसके लिए एक विस्तृत चेतना की आवश्यकता है, जहां व्यक्ति अपने आपको वास्तव में एक वैश्विक नागरिक अनुभव करता हो।
जब उपनिवेशवाद और दमन का प्रचलन ज्यादा था, उस समय राष्ट्रवाद की भावना की अभिव्यक्ति ज्यादा की जाती थी। हालांकि देशभक्ति और राष्ट्रवाद सकारात्मक गुण हैं, परंतु इसकी अति अभिव्यक्ति, व्यक्ति के जीवन को एक सीमित संदर्भ में दर्शाती है और वसुधैव कुटुंबकम के प्राचीन और सार्वभौमिक आदर्श से जुड़ने के अवसरों को सीमित करती है।
अक्सर लोग पूछते हैं कि क्या देशभक्ति सार्वभौमिकता की विरोधी है। मुझे लगता है कि यह विरोधी नहीं है। यद्यपि देशभक्ति का अत्यधिक प्रदर्शन निश्चित रूप से व्यक्ति की सार्वभौमिकता को अस्पष्ट कर देता है; एकात्मता, विश्वात्मता की संकल्पना का राष्ट्रीयता से कोई विरोध नहीं है। राष्ट्रभक्ति और विश्वप्रेम एक-दूसरे के विरोधी नहीं हैं परंतु इनकी कौशलपूर्वक अभिव्यक्ति की आवश्यकता है।
यह आश्चर्यजनक है, परंतु सत्य है कि जब चेतना का विस्तार होता है तो संसार के साथ अपनापन भी बढ़ता है और ठीक उसी समय वैराग्य भी घटित होता है।
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