आओ दौड़ शुरू करते हैं…पर जल्दी! | Let the Race Begin… but Early!

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भारत में जब भी चुनाव आयोजित होते हैं, उस समय देश को भ्रष्टाचार, दल बदल, विद्रोह, अराजकता, अपराध और भ्रम के दलदल में फेंक दिया जाता है। अक्सर उम्मीदवारों के नाम अंतिम चरण में घोषित किए जाते हैं और बहुत सारे मतदाताओं को यह अवसर तक नहीं मिलता कि वह भावी नेता का चेहरा भी देख सके, बातचीत करना तो दूर की बात है।

क्या विश्व के सबसे बड़े लोकतंत्र में ऐसी अव्यवस्था होना उचित है? या हम कुछ सुधार ला सकते है? दसवें चुनाव आयुक्त टी एन शेषण के द्वारा लाये गए कुछ क्रांतिकारी बदलाव भुलाये नहीं जा सकते। उन्होंने चुनावों पर होने वाले खर्चों, चुनाव प्रचार के दौरान अंधाधुंध पोस्टर चिपकाने तथा गाड़ियों के प्रयोग पर भी पैनी नजर रखने के प्रस्ताव रखे थे।

जैसे जैसे चुनावों का समय आता है अनुचित तत्वों में भी उछाल आ जाता है जैसे सट्टा लगाना, काले धन को वैध बनाना आदि। टिकट वितरण के समय भी करोड़ों रुपए एक हाथ से दूसरे हाथों में पहुंचते रहते हैं। या तो उम्मीदवार पैसा बनाने की कोशिश में लगे रहते हैं या पार्टी पैसे वाले उम्मीदवारों को जुटाने में लगी रहती है।

यह कार्यविधि काफी हद तक स्वच्छ हो सकती है, यदि उम्मीदवारों के नाम की घोषणा चुनाव से 6 महीने पहले कर दी जाए। औसतन, एक लोकसभा के उम्मीदवार को अपने चुनाव क्षेत्र के १२००० से १४००० गाँवों में जाना पड़ता है। उसको १० से १५ लाख मतदाताओं से संपर्क करना पड़ता है। उम्मीदवार को कम से कम १०% मतदाताओं से सिर्फ हाथ मिलाने के लिए ही काफी समय चाहिए। केवल तीन चार सप्ताह में वह इतने लोगों तक कैसे पहुंच सकेगा?

निरंतर संपर्क से मतदाताओं को यह जानने के लिए काफी समय मिल जाएगा कि जिस उम्मीदवार को वह अपना मत देना चाहते हैं, उसका चरित्र तथा स्वभाव कैसा है? जो नेता लोगों के साथ दिल से जुड़ सके, वही उनका नेतृत्व कर पायेगा। यह राजनैतिक दलों के लिए भी सहायक होगा। यदि उम्मीदवार अक्षम साबित होता है, या जनता उसको स्वीकार नहीं करती तथा उसके खिलाफ शिकायतें आती हैं तो, उस उम्मीदवार के विषय में दोबारा सोचने का तथा उस को बदल कर दूसरा उम्मीदवार घोषित करने का राजनीतिक दलों के पास समय होगा। इससे लोगों को उनके मतभेदों को समझ कर, उनको सुलझाने का या स्वीकार करने का अवसर मिलेगा।

वही एक अच्छा नेता सिद्ध होता है, जो निचले स्तर से तथा साधारण जनता के बीच से निकला हो और जिसने जनता का दिल जीता हो; न कि वह जिस को जबरदस्ती पार्टी के आलाकमान ने लोगों के ऊपर थोप दिया हो। लोकतंत्र में यह बहुत आवश्यक है कि उम्मीदवार को पता हो कि उसको किसका प्रतिनिधित्व करना है, इसी प्रकार जनता को भी पता हो कि हमारा नेता कौन है।

अक्सर सतही वास्तविकता को जाने बिना ही टिकट बांट दिए जाते हैं। बहुत से दल के कार्यकर्ता उम्मीदवारों की आखिरी सूची देख कर नाराज हो जाते हैं और अपने कार्यकाल के दौरान सच में मेहनत करने के बाद भी अपनी आवाज को अनसुना देखकर वह विद्रोही बन जाते हैं। ऐसा आवश्यक नहीं कि जिस चुनाव क्षेत्र से उम्मीदवार लड़ रहा हो वह वहां का स्थाई निवासी हो; परंतु यदि वह बाहर से भी नियुक्त हुआ है तो, उसको उस निर्वाचन क्षेत्र में रहकर काम करना चाहिए, लोगों से मिलना चाहिए और स्वयं को योग्य उम्मीदवार सिद्ध करने के प्रयास करने चाहिए। इन सब कामों को करने के लिए समय चाहिए।

आज, हालात यह है कि पार्टी चुनाव समितियां जातीय समीकरण, आर्थिक शक्ति या कई बार सदस्यों की जिद या पसंद के आधार पर उम्मीदवार का चुनाव करती हैं। अनेक बार कमजोर उम्मीदवार को इसलिए टिकट दे दिया जाता कि उसका विरोधी आसानी से वह सीट जीत सके। इस प्रकार के पार्टियों के भीतरी गठजोड़ का पर्दाफाश काफी समय पहले घोषित उम्मीदवारों की सूची से किया जा सकता है। ऐसा करना आदर्श होगा कि प्रत्येक पार्टी की चयन प्रक्रिया विकेंद्रीकरण पर आधारित हो और इसमें पंचायत और जिला परिषद को भी जोड़ दिया जाए।

बहुत बार टिकट वितरण पैसा बनाने का बड़ा धंधा हो जाता है। कभी कभी यहां तक कि विरोधी दल भी अपनी प्रतिद्वंदी पार्टी के उम्मीदवार को खरीद लेते हैं। यदि टिकट बांटने का कार्य सुव्यवस्थित कर दिया जाए तथा पहले से ही अच्छी प्रकार से आयोजित किया जाए तो, चुनाव प्रक्रिया सरल हो जाएगी, बहुत से चुनाव संबंधी अपराध समाप्त हो जायेंगे और चुनावी हिंसा को भी रोका जा सकेगा। भारत की तरह इंडोनेशिया में भी इसी महीने चुनाव होने वाले हैं और वहा चुनाव लड़ने वाले उम्मीदवारों की सूची पिछले साल अगस्त में ही जारी कर दी गई थी।

यदि उम्मीदवारों को अपने सामने खड़े होने वाले प्रतिद्वंदी के बारे में पहले से ही पता हो तो वहाँ अपने चुनावी क्षेत्र के मतदाताओं के सेवा हेतु सकारात्मक प्रतियोगिता की भावना उत्पन्न होगी।

स्वस्थ लोकतंत्र बनाने के लिए, देश की जनता, विधायी और न्यायिक निकायों के साथ एक संपूर्ण राष्ट्र का योगदान होता है। सवाल यह है कि हम वास्तव में एक बेहतर सरकार के लायक हैं क्या? क्या हम इसके बारे में वास्तव में गंभीर हैं? क्या हम कभी जाति और धर्म पर आधारित राजनीति से बाहर निकल सकते हैं? हमारे पास उत्तर से अधिक प्रश्न हैं। फिर भी हमें स्वयं को यह प्रश्न पूछते रहना चाहिए।

[नोट: यह लेख ६ अप्रैल, २०१४ को डीएनए में प्रकाशित हुआ था – : http://bit.ly/1eikDMQ]

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