न्याय व्यवस्था के साथ न्याय करें | Being Judicious Judicially
यह पृष्ठ इन भाषाओं में उपलब्ध है: English
एक समय था जब न्यायपालिका परेशान लोगों के लिए सांत्वना का माध्यम थी, निराश लोगों के लिए आशा की किरण थी, गलत काम करने वाले लोगों के लिए भय का कारण थी तथा कानून का पालन करने वाले लोगों को राहत देती थी। यह बुद्धिमान और संवेदनशील लोगों के लिए एक घर के समान थी; एक ऐसी शरण स्थली हुआ करती थी, जहाँ गरीब और अमीर दोनों को ही आसानी से न्याय मिलता था और न्यायाधीश की कुर्सी पर बैठने वाले लोगों के लिए यह एक सम्मान और गर्व का स्थान हुआ करता था। पर आज के समय में गरीब लोगों की न्यायालय में पहुँच बहुत कम है, दुष्ट लोग इसकी परवाह ही नहीं करते, चालाक लोगों ने इसे मजाक बना रखा है और कानून का पालन करने वाले लोग ही इससे डरते हैं। आज स्थिति यह हो चुकी है कि धूर्त लोग न्यायालयों का दुरूपयोग समाज के सम्मानित लोगों के विरुद्ध हथियार के रूप में कर रहे हैं। उन्हें बस इतना करते है कि वे किसी भी व्यक्ति के खिलाफ सच्चा या झूठा मुकदमा दायर कर देते हैं और मुकदमा झेलने वाला व्यक्ति सारा जीवन स्वंय को निर्दोष सिद्ध करने में लगा देता है। पहले के समय में, आप तब तक निर्दोष माने जाते थे, जब तक कि आप पर दोष सिद्ध न हो जाए; परंतु आज स्थिति यह है कि आप तब तक दोषी माने जाते हैं, जब तक कि आप स्वंय को निर्दोष सिद्ध न कर दें। निर्दोष साबित करने की यह प्रक्रिया किसी भी व्यक्ति के लिए बहुत ही लंबी और खर्चीली हो गई है।
चाहे आपने कुछ किया है या नहीं, आप पर लगने वाले आरोप ही आपकी प्रतिष्ठा को तार-तार कर देते हैं। काँची शंकराचार्य का ही उदाहरण लें। दीवाली के दिन हुई उनकी गिरफ्तारी की खबर बहुत ही सनसनीखेज तरीके से प्रस्तुत की गई। हाँलाकि नौ वर्षों की लंबी अवधि के पश्चात उन्हें निर्दोष करार दिया गया, परंतु उनके निर्दोष होने की कहानी कभी किसी ने नहीं सुनाई। किसी भी सम्मानित व्यक्ति की प्रतिष्ठा को नष्ट करने के लिए, इसी प्रकार न्याय प्रणाली का दुरुपयोग एक हथियार की तरह किया जा रहा है। किसी भी नामी व्यक्ति के खिलाफ केस दर्ज करके मिलने वाली प्रसिद्धि की लालसा में भी इस व्यवस्था का दुरुपयोग किया जाता है।
भारत के एक पूर्व मुख्य न्यायाधीश के अनुसार, राज्य सरकारों और केंद्र सरकार ने सर्वोच्च न्यायालय के बहुत से निर्णयों का पालन नहीं किया है। जब सरकारें खुद ही सर्वोच्च न्यायालय का सम्मान नहीं करती हैं, तो एक आम आदमी उसका सम्मान करने के लिए कैसे प्रेरित हो सकता है?
इन सबसे ऊपर, इस सारी प्रक्रिया के पक्षपातपूर्ण होने का भी भय बना रहता है। आजकल हालत यह है कि केस के सभी गुण-दोषों के बावजूद, उस पर होने वाला वाद-विवाद पूरी तरह से न्यायाधीश के व्यक्तित्व पर निर्भर करता है। इसमें सबसे ज्यादा चौंकाने वाली बात यह है कि, न्यायाधीशों की वकीलों से निकटता पर खुल कर चर्चा होती है, कि कौन सा वकील किस न्यायाधीश (जज) के ज्यादा निकट है। इस दुर्भाग्यपूर्ण परिस्थिति ने न्याय-तंत्र में भ्रष्टाचार को बढ़ावा दिया है, जिससे लोगों में इस व्यवस्था के प्रति विश्वास कम हुआ है। परंतु इसके साथ ही भारत ने विश्व के महान न्यायाधीश भी निर्माण किए हैं, जो कि सत्यनिष्ठा, बुद्धिमता, स्पष्ट विचार एवं दया के प्रतीक रहे हैं। आर्ट ऑफ लिविंग का यह सौभाग्य है कि इसके बोर्ड के संस्थापक ट्रस्टियों में ऐसे ही विख्यात न्यायाधीश रहे हैं, जैसे कि न्यायाधीश वी.आर.कृष्णा अय्यर, न्यायाधीश पी.एन.भगवती आदि।
हाँलाकि यह भी एक सच्चाई है कि आज अदालतों में बहुत बड़ी मात्रा में मुक़दमे (केस) लंबित पड़े हुए हैं, जिनके कारण लोग बहुत परेशान हैं। किसी भी प्रकार के अनौचित्यपूर्ण विलंब के बाद मिलने वाला न्याय भी अन्याय बन जाता है। इसी के परिणामस्वरूप अच्छे लोग किसी भी प्रकार से अदालतों के चक्कर में पड़ने से डरते हैं। चुकाने के लिए भारी भरकम कानूनी फीस और एक बहुत लंबी कानूनी प्रक्रिया के कारण लोग मामलों को दूसरे तरीकों से निपटाना पसंद करते हैं, चाहे इसके लिए उन्हें अपने कानूनी अधिकार ही क्यों न छोड़ने पड़ें।
आज हमारी न्याय व्यवस्था काफी हद तक हमारी प्रगति में बाधा बन रही है तथा ईमानदार लोगों के चरित्र पर दाग लगा रही है। भारत के माननीय प्रधान न्यायाधीश के अनुसार इसका एक कारण न्यायाधीशों (जजों) की कमी भी है। सरकार को इस समस्या का हल निकालने के लिए प्रयास करने चाहिए तथा हमारी न्याय व्यवस्था को सुदृढ़ बनाना चाहिए। इसी के साथ न्यायपालिका को भी इस बात का आकलन करना होगा कि, क्या वह लोगों के मन में अपनी एक भ्रष्टाचार मुक्त छवि बनाने में कामयाब रही है अथवा नहीं। समाज सहजता के साथ कार्यरत रह सके, इसके लिए हमारे न्यायालय एक सम्मानीय स्थल होने चाहिए, ताकि ईमानदार लोग उसे एक पवित्र स्थान की तरह सम्मान दे सकें, जहाँ वे डरा हुआ अनुभव करने की बजाय सुरक्षित अनुभव कर सकें।
आज जब भारत को अपनी न्याय व्यवस्था पर गर्व है और मीडिया बहुत अधिक स्वतंत्र है, तो कुछ ऐसी घटनाएँ भी सामने आती हैं, जिनमें न्यायपालिका मुक़दमे (केस) के तथ्यों की बजाय लोगों की राय के बारे में अधिक चिंतित नजर आती है। मीडिया अप्रत्यक्ष रूप से न्याय व्यवस्था को प्रभावित करता है। जो बात तथ्यात्मक रूप से सही होती है, वो इस बात से पूरी तरह से भिन्न हो सकती है कि उसे किस प्रकार से प्रस्तुत किया गया है और कोई भी व्यक्ति लोगों की राय के विरुद्ध नहीं जाना चाहता। इसी प्रकार से कुछ अन्य तथ्य भी न्याय व्यवस्था को प्रभावित करते हैं, जैसे कि न्याय तंत्र की नियुक्तियाँ, सिफारिशें, पदोन्नतियाँ आदि सभी राजनैतिक दृष्टिकोण से की जाती हैं। राजनीति, अर्थ तंत्र, न्यायपालिका, मीडिया और आम लोगों के बीच की यह स्थिति बहुत जटिल है। इतनी जटिल स्थिति में इस समस्या का समाधान निकालना बहुत कठिन है; क्योंकि इसके लिए बहुत से स्तरों पर सुधार की आवश्यकता होगी, पर सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि इसके लिए एक बहुत ही सजग समाज की आवश्यकता होगी।
यह पृष्ठ इन भाषाओं में उपलब्ध है: English
न्याय व्यवस्था फार थंडी पडली आहे कठोर पावले उचलून ताबडतोब निर्णय घेण्यात आला पाहिजे अशी अपेक्षा व्यक्त करतो असे मला वाटते