पर्यावरण संरक्षण को मूल्य प्रदान करना | Adding ‘value’ to Environment Care
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हर साल जैसे ही पर्यावरण दिवस आता है, संसार भर में पर्यावरण संरक्षण के लिए और भी कड़े हरित कानून और विनियम बनाने की आवाज़ तेज हो जाती है। हालांकि कानून महत्वपूर्ण हैं, परंतु वे पर्यावरण के संरक्षण के लिए पर्याप्त नहीं हैं। हमें पर्यावरण संरक्षण को अपनी नैतिक मूल्य पद्धति का भाग बनाने की आवश्यकता है।
दुनिया भर की सभी प्राचीन संस्कृतियों ने प्रकृति –पेड़-पौधों, नदियों, पर्वतों और पर्यावरण को सदा से ही महत्व दे कर संरक्षित किया है। भारत में तो काटे जाने वाले प्रत्येक पेड़ के बदले में पांच पेड़ लगाए जाने की परंपरा हमारी संस्कृति का एक हिस्सा रही है। जल हमारे सभी महत्वपूर्ण रीति-रिवाजों एवं अनुष्ठानों का एक अभिन्न भाग है। नदियों को माता के रूप में और पृथ्वी को देवी के रूप में पूजा जाता था। प्रकृति को पवित्र एवं देवतुल्य मानने की इस परंपरा को आज के आधुनिक युग में भी जीवित रखे जाने की आवश्यकता है। लोगों को जल संरक्षण तथा प्राकृतिक व रसायनमुक्त कृषि के अभिनव तरीके सिखाए जाने चाहिए।
जल निकायों के पुनरुद्धार, पौधरोपण और शून्य अपशिष्ट की ओर अभिमुख जीवन शैली के लिए समाज, विशेष रूप से युवाओं की भागीदारी के लिए एक तंत्र बनाने की जरूरत है। आर्ट ऑफ लिविंग की अगुआई में २७ नदियों के पुनरुद्धार की परियोजनाएं सामान्य नागरिकों और अन्य हितधारकों की भागीदारी द्वारा ही संभव हो पाई।
वास्तव में मानवीय लोभ एवं पर्यावरण के प्रति असंवेदनशीलता प्रदूषण के मूल कारण हैं। त्वरित और अधिक लाभ का लोभ पर्यावरण के संतुलन को गंभीर रूप से बाधित करता है, और इससे न सिर्फ भौतिक रूप से वातावरण प्रदूषित होता है, बल्कि सूक्ष्म स्तर पर यह नकारात्मक भावनाओं को भी उत्तेजित करता है। हमें मानव मानसिकता पर कार्य करने की आवश्यकता है, जो कि सभी प्रकार के प्रदूषण का मूल कारण है।
पारिस्थितिक गिरावट को प्रौद्योगिकी और विकास का एक अनिवार्य उप-उत्पादन न बनाया जाए। तकनीक और विज्ञान खतरनाक नहीं हैं, परंतु तकनीकी और वैज्ञानिक प्रक्रियाओं से निकलने वाले अपशिष्ट पदार्थ खतरनाक होते हैं। हमें कचरे का उपभोग करने और सौर ऊर्जा या प्राकृतिक कृषि जैसी गैर-प्रदूषक प्रक्रियाओं को विकसित करना व अपनाना चाहिए।
प्रौद्योगिकी का उद्देश्य प्रकृति का उपयोग कर, मनुष्यों को जानकारी और सुविधाएं प्रदान करना है। जब आध्यात्मिक और मानव मूल्यों को नजरअंदाज कर दिया जाता है, तो प्रौद्योगिकी सुविधा की अपेक्षा प्रदूषण और विनाश लाती है। अपने भीतर करुणा एवं रक्षा की भावना जागृत करने से पर्यावरण के प्रति गहरा संबंध एवं उसके संरक्षण की भावना पैदा होती है। यही कारण है कि मैं पर्यावरण संरक्षण से जुड़े हुए किसी भी अभियान के लिए आध्यात्मिक जागरूकता को एक अभिन्न अंग मानता हूँ।
प्राचीन आध्यात्मिक ज्ञान के अनुसार पर्यावरण के साथ हमारा संबंध मानव अनुभव का सबसे पहला स्तर है। ऐसी मान्यता है कि यदि हमारा पर्यावरण स्वच्छ और सकारात्मक है, तो इससे हमारे अस्तित्व के अन्य सभी स्तरों पर भी एक सकारात्मक प्रभाव पड़ेगा। ऐतिहासिक रूप से, मानव मानसिकता में पर्यावरण के साथ घनिष्ठ संबंध बनाया गया था। जब हम स्वयं से और प्रकृति से दूर होने लगते हैं, तब हम पर्यावरण को प्रदूषित और नष्ट करना शुरू कर देते हैं।
हमें प्रकृति से अपने संबंधों को सुदृढ़ करने वाले दृष्टिकोण और परंपरागत प्रथाओं को पुनर्जीवित करने की आवश्यकता है। लोगों को इस पृथ्वी के प्रति सम्मान भाव रखने, पेड़ और नदियों को पवित्र मान कर उनकी रक्षा करने, लोगों और प्रकृति में भगवान को देखने के लिए प्रोत्साहित करना होगा। इससे संवेदनशीलता को बढ़ावा मिलेगा ; और एक संवेदनशील व्यक्ति ही प्रकृति की देखभाल कर सकता है, उसे संपोषित कर सकता है।
इन सब से बढ़ कर, हमें ऐसे खुले मन, जो कि तनावमुक्त हो, से अपने इस संसार का अनुभव करने में सक्षम होना होगा और फिर हमें अपनी इस सुंदर धरती को बचाने के उपाय करने होंगे। ऐसा तभी संभव है जब मानव चेतना के स्तर पर लालच और दोहन करने की भावना से ऊपर उठ जाए। आध्यात्मिकता अर्थात अपने अंतर्मन की गहराई में स्वयं की प्रकृति का अनुभव करने से स्वयं के साथ, दूसरों के साथ और अपने पर्यावरण के साथ महत्वपूर्ण संबंध स्थापित करने के लिए मार्ग प्रशस्त होता है। आध्यात्मिकता, व्यक्ति की चेतना को उन्मुख करती है और उस लोभ पर नजर रखती है जो व्यक्ति को पर्यावरणीय ह्रास की ओर ले जाती है। इससे संपूर्ण ग्रह के संरक्षण और उसके प्रति कटिबद्ध होने को बढ़ावा मिलता है।
प्रौद्योगिकी और विज्ञान को बढ़ावा देते हुए पर्यावरण के साथ सामंजस्य बनाए रखना वर्तमान सदी की सबसे बड़ी चुनौती है। इस संतुलन को बनाए रखने में केवल आध्यात्मिक मूल्य ही सहायक हो सकते हैं।
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